Rashtriya Ekta par Nibandh with Headings (Rashtriya Ekikaran essay in Hindi)
राष्ट्रीय एकता पर निबंध
Essay on National Unity in Hindi – हमारा देश विश्व के मानचित्र पर एक विशाल देश के रूप में चित्रित है। प्राकृतिक रचना के आधार पर तो भारत के कई अलग-अलग रूप और भाग हैं। उत्तरी का पर्वतीय भाग गंगा-जमुना सहित अन्य नदियों का समतलीय भाग, दक्षिण का पठारी भाग और समुद्र तटीय मैदान। भारत का एक भाग दूसरे भाग से अलग-थलग पड़ा हुआ है। नदियों और पर्वतों के कारण वे भाग एक-दूसरे से मिल नहीं पाते हैं। इसी प्रकार से जलवायु की विभिन्नता और अलग-अलग क्षेत्रों के निवासियों के जीवन-आचरण के कारण भी देश का स्वरूप एक-दूसरे से विभिन्न और पृथक पड़ा हुआ दिखाई देता है। इन विभिन्नताओं के होते हुए भी भारत एक है।
भारतवर्ष की निर्माण सीमा ऐतिहासिक है। वह इतिहास की दृष्टि से अभिन्न है। इस विषय में हम जानते हैं कि चन्द्रगुप्त, अशोक, विक्रमादित्य और उनके बाद मुगलों ने भी इस बात की यही कोशिश की थी कि किसी तरह सारा देश एक शासक के अधीन लाया जा सके। उन्हें इस कार्य में कुछ सफलता भी मिली थी। इस प्रकार भारत की एकता ऐतिहासिक दृष्टि से एक ही सिद्ध होती है। हमारे देश की एकता का एक बड़ा आधार दर्शन और साहित्य है। हमारे देश का दर्शन सभी प्रकार की भिन्नताओं और असमानताओं को समाप्त करने वाला है। यह दर्शन है-सर्वसमन्वय की भावना का पोषक। यह दर्शन किसी एक भाषा में नहीं लिखा गया है। अपितु यह देश की विभिन्न भाषाओं में लिखा गया है।
इसी प्रकार से हमारे देश का साहित्य विभिन्न क्षेत्र के निवासियों के द्वारा लिखे जाने पर भी क्षेत्रवादिता या प्रांतीयता के भावों को नहीं उत्पन्न करता है, बल्कि सबके लिए भाई-चारे और सद्भाव की कथा सुनाता है। मेल-मिलाप का सन्देश देता हुआ देशभक्ति के भावों को जगाता है। विचारों की एकता जाति की सबसे बड़ी एकता होती है। अतएव भारतीय जनता की एकता के असली आधार भारतीय दर्शन और साहित्य है जो अनेक भाषाओं में लिखे जाने पर भी अन्त में जाकर एक ही साबित होते हैं। यह भी ध्यान देने की बात है कि फारसी लिपि को छोड़ दें, तो भारत की अन्य सभी लिपियों की वर्णमाला एक ही है।
यद्यपि हमारे देश की भाषा एक ही नहीं अनेक हैं। यहाँ पर लगभग पन्द्रह भाषाएँ हैं। इन सभी भाषाओं की बोलियाँ अर्थात् उपभाषाएँ भी हैं। सभी भाषाओं को संविधान से मान्यता मिली है। इन सभी भाषाओं से रचा हुआ साहित्य हमारी राष्ट्रीय भावनाओं से ही प्रेरित है। इस प्रकार से भाषा-भेद की भी ऐसी कोई समस्या नहीं दिखाई देती है, जो हमारी राष्ट्रीय एकता (National Unity) को खंडित कर सके।
उत्तर भारत का निवासी दक्षिणी भारत के निवासी की भाषा को न समझने के बावजूद उसके प्रति कोई नफरत की भावना नहीं रखता है। रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ हमारे देश की विभिन्न भाषाओं में तो हैं, लेकिन इनकी व्यक्त हुई भावना हमारी राष्ट्रीयता को ही प्रकाशित करती हैं। तुलसी, सूर, कबीर, मीरा, नानक, रैदास, तुकाराम, विद्यापति, रवीन्द्रनाथ टैगोर, तिरूवल्लुवर आदि की रचनाएँ एक दूसरे की भाषा से नहीं मिलती हैं। फिर भी इनकी भावात्मक एकता राष्ट्र के सांस्कृतिक मानस को ही पल्लवित करने में लगी हुई हैं।
भारत की एकता (National Unity) की सबसे बड़ी बाधा ही ऊँचे-ऊँचे पर्वत, बड़ी-बड़ी नदियाँ देश का विशाल क्षेत्रफल आदि। जनता इन्हें पार करने में असफल हो जाती थी। इससे एक-दूसरे से सम्पर्क नहीं कर पाते थे। आज की वैज्ञानिक सुविधाओं के कारण अब वह बाधा समाप्त हो गई हैं। देश के सभी भाग एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। इस प्रकार हमारी एकता बनी हुई है।
हमारे देश की एकता का सबसे बड़ा आधार प्रशासन की एकसूत्रता है। हमारे देश का प्रशासन एक है। हमारा संविधान एक है और हम दिल्ली में बैठे-बैठे ही पूरे देश पर शासन एक समान करने में समर्थ हैं।
National Unity Essay in Hindi
राष्ट्रीय एकता : निबंध
भारत अनेक धर्मों, जातियों और भाषाओं का देश है। भारत की विशेषता है, इस अनेकता में एकता की भावना। जब कभी उस एकता को खंडित करने का प्रयास किया जाता है तो भारत का एक-एक नागरिक सजग हो उठता है। राष्ट्रीय एकता (National Unity) को खंडित करनेवाली शक्तियों के विरुद्ध आंदोलन आरंभ हो जाता है। राष्ट्रीय एकता हमारे राष्ट्रीय गौरव की प्रतीक है और जिस व्यक्ति को अपने राष्ट्रीय गौरव का अभिमान नहीं है वह नर नहीं, नर पशु है-
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।वह नर नहीं नर पशु निरा और मृतक समान है।
राष्ट्र का स्वरूप- राष्ट्रीय एकता (National Unity) के लिए प्रयत्नशील होने से पूर्व हमें राष्ट्र का स्वरूप भी जान लेना चाहिए। राष्ट्र की भूमि, भूमि के निवासी, व्यक्ति और निवासियों की संस्कृति से राष्ट्र का स्वरूप निर्मित होता है। यह भारत भूमि सच्चे अर्थों में समस्त राष्ट्रीय विचारों की जननी है। राष्ट्रीयता की जड़ें राष्ट्र की भूमि में जितनी गहरी होंगी, राष्ट्रीय भावों का अंकुर उतना ही पल्लवित होगा।
राष्ट्र की भूमि पर निवास करनेवाला मनुष्य राष्ट्र का दूसरा अंग हैं। पृथ्वी और उसके निवासियों के सम्मिलन से राष्ट्र का स्वरूप बनता है।
राष्ट्र के स्वरूप-निर्माण में तीसरा अंग संस्कृति है। जब तक संस्कृति का विकास नहीं होता, राष्ट्र का वास्तविक विकास नहीं हो सकता। सांस्कृतिक विकास के लिए सहिष्णुता, सहयोग और समन्वय की भावना परम आवश्यक
राष्ट्रीय एकता से अभिप्राय- राष्ट्रीय एकता (National Unity) का अभिप्राय है- संपूर्ण भारत की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक एकता। हमारे कर्मकांड, पूजा-पाठ, खान-पान, रहन-सहन और वेशभूषा में अंतर हो सकता है। इसमें अनेकता हो सकती है, किंतु हमारे राजनीतिक और वैचारिक दृष्टिकोण में एकता है। इस प्रकार अनेकता में एकता ही भारत की प्रमुख विशेषता है।
राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता- राष्ट्र की आंतरिक शांति तथा सुव्यवस्था और बाहरी दुश्मनों से रक्षा के लिए राष्ट्रीय एकता (National Unity) परम आवश्यक है। यदि हम भारतवासी किसी कारणवश छिन्न-भिन्न हो गए तो हमारे पारस्परिक फूट को देखकर अन्य देश हमारी स्वतंत्रता को हड़पने का प्रयास करेंगे। इस प्रकार अपनी स्वतंत्रता की रक्षा एवं राष्ट्र की उन्नति के लिए राष्ट्रीय एकता परम आवश्यक है। अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता सम्मेलन में बोलते हुए हमारी स्व.प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरागांधी ने कहा था-‘जब-जब भी हम असंगठित हुए, हमें आर्थिक और राजनीतिक रूप में इसकी कीमत चुकानी पड़ी। जब-जब भी विचारों में संकीर्णता आई, आपस में झगड़े हुए, जब कभी भी नए विचारों से अपना मुख मोड़ा, हानि ही हुई, हम विदेशी शासन के अधीन हो गए।’
राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ : कारण और निवारण- राष्ट्रीय एकता (National Unity) की भावना का अर्थ मात्र यह नहीं है कि हम एक राष्ट्र से संबद्ध हैं। राष्ट्रीय एकता के लिए एक-दूसरे के प्रति भाईचारे की भावना भी आवश्यक है। स्वतंत्रता प्राप्त करने के पश्चात् हमने सोचा था कि हमारी पारस्परिक भेदभाव की खाई पट जाएगी, किंतु हम देख रहे हैं कि सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता, जातीयता, अज्ञानता और भाषागत अनेकता ने पूरे देश को आक्रांत कर रखा है।
राष्ट्रीय एकता को छिन्न-भिन्न कर देनेवाले इन कारणों को जानना ज़रूरी है, ताकि उनको दूर करने का प्रयास किया जा सके।
(i) सांप्रदायिकता- राष्ट्रीय एकता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा सांप्रदायिकता की भावना है। सांप्रदायिकता एक ऐसी बुराई है, जो मानव-मानव में फूट डालती है, दो दोस्तों के बीच नफ़रत और भेद की दीवार खड़ी करती है, भाई को भाई से अलग करती है और अंत में समाज के टुकड़े कर देती है।
दुर्भाग्य से इस रोग को समाप्त करने का जितना अधिक प्रयास किया गया है, यह उतना ही अधिक बढ़ता गया है। स्वार्थ में लिप्त राजनीतिज्ञ संप्रदाय के नाम
पर भोले-भाले लोगों को लड़ाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने में रहे हैं। रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के टकराव के मूल में भी पवित्र धार्मिक भावनाएँ नहीं हैं। वहाँ भी राजनेताओं की तुच्छ वोटों की राजनीति ही विद्वेष उत्पन्न करने का कारण रही है। परिणामतः देश का वातावरण विषाक्त होता रहा है।
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यदि राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधे रखना है तो सांप्रदायिक विद्वेष, स्पर्धा, ईर्ष्या आदि राष्ट्र-विरोधी भावों को अपने मन से दूर रखना होगा और सांप्रदायिक सद्भाव पैदा करना होगा। सांप्रदायिक सद्भाव से तात्पर्य है कि हिंद, मसलमान, ईसाई, सिख, पारसी, जैन, बौद्ध आदि सभी मतावलंबी भारतभूमि को अपनी मातृभूमि मानकर स्नेह और सद्भाव के साथ रहें। यह राष्ट्रीयता के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है।
सांप्रदायिक सद्भाव और सौहार्द बनाए रखने के लिए प्रत्येक देशवासी को यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि प्रेम से प्रेम, घृणा से घृणा और विश्वास से विश्वास उत्पन्न होता है। हमें सोचना चाहिए कि अच्छे हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई अथवा किसी अन्य संप्रदाय के सदस्य होने के साथ-साथ हम अच्छे भारतवासी भी हैं। हमें यह जानना चाहिए कि सभी धर्म आत्मा की शांति के लिए भिन्न-भिन्न उपाय और साधन अपनाते हैं। धर्मों में छोटे-बड़े का भेद नहीं है। सभी धर्म और उनके प्रवर्तक तथा गुरु इसीलिए सत्य, अहिंसा, प्रेम, समता, सदाचार और नैतिकता पर बल देते रहे हैं। सच्चे धर्म के मूल में भेद नहीं है। मंदिर और मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च, सभी पूजा-प्रार्थना के पवित्र स्थान हैं। मनुष्य को इन स्थानों पर आत्मिक शांति मिलती है, इन सभी स्थानों को हमें पूज्यभाव से देखना चाहिए और इनकी पवित्रता की सब प्रकार से रक्षा करनी चाहिए। इसीलिए पूर्व प्रधानमंत्री श्री पी. वी. नरसिंह राव ने कहा था कि ‘धर्म-निरपेक्ष’ शब्द के स्थान पर ‘संप्रदाय-निरपेक्ष’ शब्द होना चाहिए।’
सांप्रदायिक कटुता दूर करने के लिए आवश्यक है कि हम दूसरे धर्म या धर्म-स्थानों को भी उसी प्रकार प्यार करें, जिस प्रकार हम अपने धर्म या पूजा-स्थानों को करते हैं। यदि हम अपने राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधना चाहते हैं तो उसके लिए आवश्यक है कि हम सभी भारतीयों को अपना भाई समझें, चाहे वे किसी भी धर्म या मत को मानते हों। ‘हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आपस में सब भाई-भाई’ का नारा हमारी राष्ट्रीय अखंडता का मूलमंत्र है।
उर्दू के प्रसिद्ध शायर इकबाल ने धार्मिक और सांप्रदायिक एकता की दृष्टि से अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा था
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोस्ताँ हमारा।
तात्पर्य यह है कि कोई भी धर्म या मजहब नफ़रत और घृणा की शिक्षा नहीं देता। धार्मिक एकता और सांप्रदायिक सद्भाव के लिए आवश्यक है कि हम अपने धर्म-ग्रंथों के वास्तविक संदेश को समझें, उनके स्वार्थपूर्ण अर्थ न निकालें। विभिन्न धर्मों के आदर्श संदेशों को संगहीत किया जाए। प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं में उनके अध्ययन की विधिवत् व्यवस्था की जाए, ताकि भावी पीढ़ी उन्हें अपने आचरण में उतार सके और संसार के समक्ष ऐसा उदाहरण प्रस्तुत कर सके कि वह सभी धर्मों और संप्रदायों को महान् माने एवं उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखे।
(ii) भाषागत विवाद- भारत बहुभाषी राष्ट्र है। विभिन्न प्रांतों की अलग-अलग बोलियाँ और भाषाएँ हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी भाषा को श्रेष्ठ और उसके साहित्य को महान् मानता है। इस आधार पर भाषागत विवाद खड़े हो जाते हैं तथा राष्ट्र की अखंडता भंग होने के खतरे बढ़ जाते हैं। हमारे संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया है, किंत सभी प्रादेशिक भाषाओं के उत्थान और विकास के लिए भी पूरी व्यवस्था की गई है। .
यदि कोई व्यक्ति अपनी मातृभाषा के मोह के कारण दूसरी भाषा का अपमान करता है या उसकी अवहेलना करता है तो वह राष्ट्रीय एकता (National Unity) पर प्रहार करता है। होना तो यह चाहिए कि हम अपनी मातृभाषा को सीखने के बाद संविधान में स्वीकृत अन्य प्रादेशिक भाषाओं को भी सीखें तथा राष्ट्रीय एकता के निर्माण में सहयोग प्रदान करें।
(iii) प्रांतीयता या प्रादेशिकता की भावना- प्रांतीयता या प्रादेशिकता की भावना भी राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है। राष्ट्र एक संपूर्ण इकाई है। कभी-कभी यदि किसी अंचल-विशेष के निवासी अपने पृथक अस्तित्व की माँग करते हैं तो राष्ट्रीयता की परिभाषा को न समझने के कारण ही करते हैं। इस प्रकार की माँग करने से राष्ट्रीय एकता और अखंडता का विचार ही समाप्त हो जाता है।
चूँकि भारत के सभी प्रांत राष्ट्रीय एकता के सूत्र में आबद्ध हैं; अत: उनमें अलगाव संभव नहीं है। राष्ट्रीय एकता (National Unity) के इस प्रमुख तत्त्व को दृष्टि से ओझल नहीं होने देना चाहिए।
राष्ट्रीय एकता और हमारे प्रयास- विचारक, साहित्यकार, दार्शनिक और समाजसुधारक अपनी-अपनी सीमाओं में निरंतर इस बात के लिए प्रयत्नशील हैं कि देश में भाईचारे और सद्भावना का वातावरण बने, अलगाव की भावनाएँ समाप्त हों, पारस्परिक तनाव और विद्वेष की दीवारें समाप्त हों, फिर भी इस आग में कभी पंजाब सुलग उठता है, कभी आसाम, कभी कश्मीर, कभी तमिलनाडु।
अप्रिय घटनाओं की पुनरावृत्ति इस बात का संकेत देती है कि हम टकराव और बिखराव पैदा करने वाले तत्त्वों को रोक नहीं पा रहे हैं। इन समस्याओं के समाधान का उत्तरदायित्व मात्र राजनेताओं अथवा प्रशासनिक अधिकारियों का ही नहीं है, इसके लिए तो संपूर्ण जनता को मिल-जुलकर प्रयास करना होगा। जनता तो रीढ़ है, यदि वह उदासीन बनी रहे तो किसी भी समस्या का समाधान असंभव है।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि अनेक धर्मों, अनेक जातियों और अनेक भाषाओं वाला यह देश एकता की एक कड़ी में बँधा रहा है। यहाँ अनेक जातियों का आगमन हुआ और वे धीरे-धीरे इसकी मूल धारा में विलीन हो गईं। उनकी परंपराएँ, विचारधाराएँ और संस्कृति इस देश के साथ एकरूप हो गई। भारत की यह विशेषता आज भी ज्यों-की-त्यों बनी हुई है। भारत के नागरिक होने के नाते हमारा कर्त्तव्य है कि हम इस भावना को नष्ट न होने दें, वरन् उसे और अधिक पुष्ट बनाएँ।
इस विषय में परिवार और महिलाओं के योगदान को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए। हमारी माताओं और बहनों द्वारा प्रारंभ से ही अपने बच्चों को यह समझाया जाना चाहिए कि तुम हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई होते हुए भी केवल एक इन्सान हो और इन्सानों से प्यार करना तुम्हारा कर्त्तव्य है। तभी एक ऐसा वातावरण उत्पन्न होगा, जिसमें बच्चे अपने विद्यालयों और उससे आगे के वातावरण में मानसिक स्तर पर पथभ्रष्ट नहीं हो सकेंगे।
आज एक ओर विकास के साधन बढ़ते जा रहे हैं, दूरियाँ कम होती जा रही हैं, किंतु आदमी और आदमी के बीच की दूरी बढ़ती जा रही है। इस स्थिति पर चोट करती हुई ये पंक्तियाँ हमें बहुत कुछ सोचने को विवश करती हैं
साधनों की मुट्ठियों में धरतियाँ सिमटी हुई,और फिर भी फ़ासला ही फ़ासला चारों तरफ़।